सोमवार, 27 अप्रैल 2009

लाशों का जंगल

हम..
तुम ...
वे...
सब के सब ....
लाशों के जंगल में राहें बनाते हुए;
खामोश;
बढ़ रहे हैं एक ओर
जिंदगी कि गहरी तलाश में....

हर एक लाश के पाँव
किसी बरगद की जड़ों की नाईं
हमारे पैरों को फाँसते हैं ..
बूढे पीपल
आपस में खुसफुसा कर
सन्नाटे में खाँसते हैं.

हर एक लाश के कान
तेजाबी बातों की दिशाएँ भाँपते हैं.
धारदार फीतों से
शब्दों को मापते हैं.

हर एक लाश की आँखें
ताजा साँसों पर चिपक जाती हैं.
अँधेरे में खुलती हैं ;
उजाले में दुबक जाती हैं.

हर लाश की नाक
बारूद की टोह लेती है .
जहाँ कहीं जलता है फास्फोरस.......
बूटों से रगड़ देती है .

ऐसे माहौल में...
हम ...
तुम ...
वे ....
सब के सब
जिंदगी को तलाश रहे हैं .

लाशों के जंगल में
आग लगा देनी है
आग की मीनारों पर
लहू से लिख देना है----

"इन्कलाब का कोई बेटा
आखिरी नहीं होता ...

"मौत की कीमत पर
हमें जिंदगी को लेना है ...."

शनिवार, 25 अप्रैल 2009

आत्माहुति

मेरे प्राणों को लगी आग,

तेरे प्राणों को लगी आग.

मंजुल सपनों में सोये थे,

उन अरमानो को लगी आग


जल रही कल्पना की धरती

प्यारा मधु-कानन जलता है .

मधु-ऋतु की बाहों में खोया

सारा पलाश वन जलता है.

तरु-तरु के किसलय जलते हैं

कोमल पंखुरियाँ जलती हैं

जल- जल कर झरता है पराग

जैसे फुलझरियां जलती हैं

सुनसान तलैया जलती है

भावों का शतदल जलता है

जलता है केसर का सुहाग

सौरभ का आँचल जलता है .

जलता है विहगों का कूजन

मधुपों का गुंजन जलता है

जल रही वनानी के मन में

रागों का बंधन जलता है .

पश्यंती के अवगुंठन में

रागों का बंधन जलता है.

शब्दों के अधरों पर मुद्रित

कविता का चुम्बन जलता है

कल तक मेरे अधरों पर थे

उन मधुगानो को लगी आग

क्षण के सौ सौ बलिदानों की

अनमोल कहानी जलती है.

संयम के हाथों अपमानित

उन्मुक्त जवानी जलती है.

पौरुष के पद-तल जलते हैं

प्रज्ञा का नूपुर जलता है .

महिमा की कोख झुलसती है

प्रतिभा का अंकुर जलता है .

नक्षत्रों की आभा छूकर

हिमगिरी का मस्तक जलता है

कुसुमित उपत्यका जलती है

किरणों का तक्षक जलता है.

अस्वस्थ दिशाओं में सिर को

झुकने से वर्जित करता है

फिर भी आनेवाली पीढी का

पद अभिनंदित करता है ;

जग की पीड़ाओं से अविजित

उन अभिमानो को लगी आग

हवि के चरणों में अनिवेदित

पावन समिधायें जलती हैं .

मेधा के आहत वृत्तों में

चिंतन कणिकाएँ जलती हैं

बंदी चित्रों से निकल निकल

कुछ विषकन्याएं जलती है

अपने अभी शापित मंत्रों से

स्वर की छायाएँ जलती हैं.

लक्ष्मण रेखाएँ खींच , अशिव की

साधें कीलित करता है

बाहर की आँखें मूँद, अचेतन-

को उन्मीलित करता है ;

मेरे अविचल विश्वासों के

उन संधानों को ली आग.

अपनी माया के कम्पन से

माटी की प्रतिमा टूट गयी

कुंठा के एक भुलावे में

वर्षों की संज्ञा रूठ गयी

अपनी ही ज्वलित गंध छूकर

आस्था का चन्दन जलता है

हर बाती, में आने वाले

कल का नीराजन जलता है .

संकल्प-साधना से संचित

उन वरदानों को लगी आग .

मेरी लजवंती वाणी को

अंगारों की शुभ- दृष्टि मिली .

वन्ध्या हरियाली की मेरे

प्राणों की लोहित वृष्टि मिली.

रोके थे जो युग- वातायन

उन व्यवधानों को लगी आग


मेरे प्राणों को लगी आग .

तेरे प्राणों को लगी आग

गुरुवार, 23 अप्रैल 2009

अग्नि बीज

मेरे छवि दर्पण को तोड़ा तुमने जीतनी बार !
चित्र तुम्हारा उभर- उभर आया है उतनी बार !

मिलते हैं आघात निरंतर करुणा की बाहों में
पल -भर सत्य बिखर जाता है चिंतन की राहों में
किन्तु नहीं हो पाती टूटे दर्पण की अवहेला
सौ- सौ छवियों में बिंबित होता है रूप अकेला

जितनी बार मरण ने झाँका दर्पण के टुकड़ों से
उतनी बार किया है मैंने जीवन को स्वीकार !

पीले पत्तों में मुरझाती है जीवन की आशा
पल भर गूँगी हो उठती है वन की सुरभित भाषा
किन्तु नहीं बहरे हो पाते प्यासे प्राण सुमन के
किसलय के मुँह, बोल फूट पड़ते है मधु-वंदन के

जितनी बार शिशिर ने तरु की कुंठा को झकझोरा
उतनी बार नया हो आया मधुवन का श्रृंगार !

युग की पीडा मेरे गुंजन को अकुला जाती है
पल भर वेणु- विनिन्दित मन की साँस चुरा जाती है
किन्तु नहीं होती अंतर से बड़ी मनुज की छाया
मेरी मुसकानों से बाहर का उपचार लजाया

जितनी बार सृजन के स्वर को दर्दों ने दुलराया -
उतनी बार दिखाया मैंने गीतों का आभार !

हिम -खंडों में बंद वर्जना का स्वर दुहराता है
पल - भर पर्वत की छाती में उत्स सिहर जाता है
किन्तु तरल निर्झर से कब गिरि की निष्ठुरता जीती ?
हर मावस की रात किरण की अगवानी में बीती

जितनी बार भुवन को मैंने दृग - जल से नहलाया
उतनी बार पिघल आया है पत्थर का व्यवहार !

जब अपने बीते दिन, पथ में अग्नि- बीज बोते हैं
पल भर अन्धकार के संशय अनुरंजित होते हैं
किन्तु नयी पीढी का अर्पण व्यर्थ नहीं होता है
आहुतियों का पुण्य कभी असमर्थ नहीं होता है

जितनी बार रुधिर से मैंने किया विगत का तर्पण
उतनी बार स्वयं शरमाये पद-तल के अंगार!