मेरे छवि दर्पण को तोड़ा तुमने जीतनी बार !
चित्र तुम्हारा उभर- उभर आया है उतनी बार !
मिलते हैं आघात निरंतर करुणा की बाहों में
पल -भर सत्य बिखर जाता है चिंतन की राहों में
किन्तु नहीं हो पाती टूटे दर्पण की अवहेला
सौ- सौ छवियों में बिंबित होता है रूप अकेला
जितनी बार मरण ने झाँका दर्पण के टुकड़ों से
उतनी बार किया है मैंने जीवन को स्वीकार !
पीले पत्तों में मुरझाती है जीवन की आशा
पल भर गूँगी हो उठती है वन की सुरभित भाषा
किन्तु नहीं बहरे हो पाते प्यासे प्राण सुमन के
किसलय के मुँह, बोल फूट पड़ते है मधु-वंदन के
जितनी बार शिशिर ने तरु की कुंठा को झकझोरा
उतनी बार नया हो आया मधुवन का श्रृंगार !
युग की पीडा मेरे गुंजन को अकुला जाती है
पल भर वेणु- विनिन्दित मन की साँस चुरा जाती है
किन्तु नहीं होती अंतर से बड़ी मनुज की छाया
मेरी मुसकानों से बाहर का उपचार लजाया
जितनी बार सृजन के स्वर को दर्दों ने दुलराया -
उतनी बार दिखाया मैंने गीतों का आभार !
हिम -खंडों में बंद वर्जना का स्वर दुहराता है
पल - भर पर्वत की छाती में उत्स सिहर जाता है
किन्तु तरल निर्झर से कब गिरि की निष्ठुरता जीती ?
हर मावस की रात किरण की अगवानी में बीती
जितनी बार भुवन को मैंने दृग - जल से नहलाया
उतनी बार पिघल आया है पत्थर का व्यवहार !
जब अपने बीते दिन, पथ में अग्नि- बीज बोते हैं
पल भर अन्धकार के संशय अनुरंजित होते हैं
किन्तु नयी पीढी का अर्पण व्यर्थ नहीं होता है
आहुतियों का पुण्य कभी असमर्थ नहीं होता है
जितनी बार रुधिर से मैंने किया विगत का तर्पण
उतनी बार स्वयं शरमाये पद-तल के अंगार!
गुरुवार, 23 अप्रैल 2009
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shabdon kaa chayan aur upyog se banee ek behataree rachnaa, swaagat hai aapkaa likhte rahein....
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