बुधवार, 17 जून 2009

आने वाले कल का आदमी

संतप्त जन-सागर के
खारे पानी की अतल गहराइयों में तैरती
मछलियों-सी
अनगिन आंखों के घेरे में
जम गया
तुम्हारा ताज़ा लहू
मूंगे की घाटी-सी
ज्वलित तरुणई का दूसरा नाम बन गया है !

विक्षिप्त उल्का-पिंडों की
भागती लकीरों के बुझने से पहले
नीलम की वादी में
पीली धूप का हस्ताक्षर...
आदम के बेटों के लिए
लाइलाज़ दर्द का आयाम बन गया है !!

बेबसी.. या नफ़रत.. या चोट.. या तबाही.. !
साजिश.. या फरेब.. या झूठी गवाही.. !!
मौत के इन काले किस्सों की
जहरीली नागफनी के बाड़े लाँघ कर
धूप की तरह फैलने वाले
बेलौस कहकहों का
एक सिलसिला तुम बो गये हो !

यादों की सीलन-भरी दीवारों पर टँगी
पथरायी..
धुँधली-उजली..
मुसकानों के साये में
तुम्हारे दुधमुँहे सपनों की फ़स्ल का क्या होगा ?
अब इसकी फिक्र तुम्हे क्या है !

तुम तो
अपनी दोपहरी को सिरहाने रख,
चिथड़े-चिथड़े सूरज की चिन्दियाँ ओढ़ कर
वक्त के उदास पन्नो में सो गये हो !!

"तुम' जो बेटे थे , भाई थे , बाप थे !
"तुम" जो साथी थे, दोस्त थे, अपने-आप थे !
"तुम" जो दुश्मन थे, कांटे थे !
'तुम" जो नश्तर थे, चाँटे थे !

रिश्तों के धागों से ऊपर
तुम उन सब के थे;
जो तुम्हारे कुछ नहीं थे.
सच;
जिनका कोई नहीं होता
उन मजलूमों की तरफदारी में जूझते
हर पल के आदमी थे !

आज की
दुहरी तिहरी नकाबों की शर्मनाक भीड़ में
शान से गुजरते हुए
आने वाले कल के आदमी थे!!

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