शनिवार, 25 अप्रैल 2009

आत्माहुति

मेरे प्राणों को लगी आग,

तेरे प्राणों को लगी आग.

मंजुल सपनों में सोये थे,

उन अरमानो को लगी आग


जल रही कल्पना की धरती

प्यारा मधु-कानन जलता है .

मधु-ऋतु की बाहों में खोया

सारा पलाश वन जलता है.

तरु-तरु के किसलय जलते हैं

कोमल पंखुरियाँ जलती हैं

जल- जल कर झरता है पराग

जैसे फुलझरियां जलती हैं

सुनसान तलैया जलती है

भावों का शतदल जलता है

जलता है केसर का सुहाग

सौरभ का आँचल जलता है .

जलता है विहगों का कूजन

मधुपों का गुंजन जलता है

जल रही वनानी के मन में

रागों का बंधन जलता है .

पश्यंती के अवगुंठन में

रागों का बंधन जलता है.

शब्दों के अधरों पर मुद्रित

कविता का चुम्बन जलता है

कल तक मेरे अधरों पर थे

उन मधुगानो को लगी आग

क्षण के सौ सौ बलिदानों की

अनमोल कहानी जलती है.

संयम के हाथों अपमानित

उन्मुक्त जवानी जलती है.

पौरुष के पद-तल जलते हैं

प्रज्ञा का नूपुर जलता है .

महिमा की कोख झुलसती है

प्रतिभा का अंकुर जलता है .

नक्षत्रों की आभा छूकर

हिमगिरी का मस्तक जलता है

कुसुमित उपत्यका जलती है

किरणों का तक्षक जलता है.

अस्वस्थ दिशाओं में सिर को

झुकने से वर्जित करता है

फिर भी आनेवाली पीढी का

पद अभिनंदित करता है ;

जग की पीड़ाओं से अविजित

उन अभिमानो को लगी आग

हवि के चरणों में अनिवेदित

पावन समिधायें जलती हैं .

मेधा के आहत वृत्तों में

चिंतन कणिकाएँ जलती हैं

बंदी चित्रों से निकल निकल

कुछ विषकन्याएं जलती है

अपने अभी शापित मंत्रों से

स्वर की छायाएँ जलती हैं.

लक्ष्मण रेखाएँ खींच , अशिव की

साधें कीलित करता है

बाहर की आँखें मूँद, अचेतन-

को उन्मीलित करता है ;

मेरे अविचल विश्वासों के

उन संधानों को ली आग.

अपनी माया के कम्पन से

माटी की प्रतिमा टूट गयी

कुंठा के एक भुलावे में

वर्षों की संज्ञा रूठ गयी

अपनी ही ज्वलित गंध छूकर

आस्था का चन्दन जलता है

हर बाती, में आने वाले

कल का नीराजन जलता है .

संकल्प-साधना से संचित

उन वरदानों को लगी आग .

मेरी लजवंती वाणी को

अंगारों की शुभ- दृष्टि मिली .

वन्ध्या हरियाली की मेरे

प्राणों की लोहित वृष्टि मिली.

रोके थे जो युग- वातायन

उन व्यवधानों को लगी आग


मेरे प्राणों को लगी आग .

तेरे प्राणों को लगी आग

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